यहां पैरों के नीचे न जमीन ही होती है और न किसी शाख से टूटकर गिरे पत्ते। यहां सिर के ऊपर न आसमान दिखता है और न सूरज की किरणें ही इस घनी छतरी को पार कर पाती हैं। कवियों और शायरों ने नदी के सागर में जाकर मिलने की तो खूब बड़ाई की है लेकिन प्रकृति ने अपनी कलाकारी कहीं और भी दिखाई है। यकीन नहीं आता तो नदी नहीं, जमीन और सागर के मिलन का नजारा देख लीजिए। यहां सांस लेती है एक ऐसी दुनिया जिसने जीवन को आंचल में छिप किसी बच्चे की तरह संभाल रखा है। ये कहानी है इसी मैंग्रोव जंगलों की। ...जब मुंबई में दिखा खतरा साल 2020। जगह मुंबई, भारत। दक्षिणपूर्व और पूर्वीमध्य अरब सागर में कम दबाव का ऐसा क्षेत्र बना और उठने लगा निसर्ग ट्रॉपिकल साइक्लोन। भारतीय मौसम विभाग ने इसे सीवियर की कैटिगिरी में रखा। इसकी अधिकतम रफ्तार 100-110km/hr बनी हुई थी और 120km/hr तक जा रही थी। मुंबई पर उतरा यह चक्रवात खतरनाक होती जलवायु की गवाही एकदम करीब से दे रहा था। Indian Institute of Tropical Meteorology की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2001 से 2019 के बीच अरब सागर में च्रकवात का आना 52% बढ़ गया। इसने ध्यान खींचा गर्म होते समुद्र की ओर। वायुमंडल और महासागर, दोनों में इस तरह की कंडीशन्स पैदा होने लगी हैं कि अब ज्यादा चक्रवात बनते हैं और इनकी तीव्रता भी बढ़ती जा रही है। साल 2017 में संयुक्त राष्ट्र की दि ओशन कॉन्फ्रेंस फैक्टशीट के मुताबिक दुनिया की 40% आबादी यानी करीब 2.4 अरब लोग समुद्रतट के 100 किमी के दायरे में रहते हैं। और समुद्र के प्रकोप से उन्हें बचाने का काम करते हैं मैंग्रोव के जंगल। क्यों इतने खास हैं मैंग्रोव? साल 2015 में संयुक्त राष्ट्र के एजुकेशनल, साइंटिफिक और कल्चरल ऑर्गनाइजेशन UNESCO की जनरल कॉन्फ्रेंस में एक दिन मैंग्रोव ईकोसिस्टम के संरक्षण के लिए समर्पित करना तय किया। ये दिन था 26 जुलाई। मैंग्रोव जंगलों और इसके पूरे ईकोसिस्टम के संरक्षण का सूत्र तीन शब्दों में दिया गया unique, special and vulnerable। इन्हीं के आधार पर sustainable management और conservation के तरीके खोजने पर जोर दिया गया लेकिन इन जंगलों में ऐसा क्या है जो इन्हें यूनिक, स्पेशल या वलनरेबल बनाता है? समुद्रतट के सुरक्षाकवच मैंग्रोव धरती पर सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव और बायोडायवर्सिटी से भरे ईकोसिस्टम्स में से एक होते हैं। ये खारे पानी की अलग-अलग गहराई में पनपते हैं। आम पौधों से अलग इनकी जड़ें मिट्टी से बाहर की ओर निकली हुई होती हैं। मछलियां, क्रस्टेशियन और कई दूसरे जीव इन पेड़ों के तनों के बीच में रहते हैं। ये बेहद खास हैं क्योंकि मैंग्रोव दूसरे जंगलों की तुलना में चार गुना ज्यादा कार्बनडाइऑक्साइड सोख सकते हैं। सबसे बड़ी सुरक्षा ये तटीय इलाकों में चक्रवात और बाढ़ जैसी आपदों से बचने में देते हैं। ये समुद्र के खारे पानी को जमीन पर पानी के दूसरे स्रोतों में मिलने से भी रोकते हैं और टाइडल सर्ज से भी बचाव करते हैं लेकिन आज ये खुद खतरे में हैं क्योंकि मैंग्रोव के जंगल तेजी से और चिंताजनक रफ्तार पर खत्म हो रहे हैं। अलग-अलग जगहों पर तटीय विकास और हाल में सबसे ज्यादा टूरिज्म इंडस्ट्री, प्रदूषण, कीटनाशकों के इस्तेमाल और कचरा डंप किए जाने की वजह से इन पर खतरा बना हुआ है। जब फ्लोरिडा में बचाई अरबों की संपत्ति मैंग्रोव जंगल रोटी, छत और रोजगार मुहैया कराके इंसानी जीवन को बेहतर बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। तटीय इलाकों में ये प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली का काम करते हैं। इनका ठोस रूट सिस्टम ऐसी खासियत है जो तेज तूफानी बहाव और बाढ़ जैसे हालात में प्राकृतिक बैरियर का काम करता है। न सिर्फ ये समुद्र की विशाल लहरों से तट के पास रहने वाले लोगों को बचाते हैं बल्कि जमीन से प्रदूषक तत्वों को समुद्र के साफ पानी में मिलने से भी रोकते हैं। द नेचर कन्जर्वेंसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के फ्लोरिडा में मैंग्रोव जंगलों ने साल 2017 में Hurricane Irma के कहर से लाखों को लोगों को बचाया था और कम से कम 1.5 अरब डॉलर की संपत्ति के नुकसान को भी टाला था। कार्बन के विशाल स्टोर यूं तो कोई भी जंगल हो वह कार्बनडायऑक्साइड का इस्तेमाल करके ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ने से रोकने में मदद करता ही है लेकिन मैंग्रोव के जंगल यहां भी दूसरों से ज्यादा इफेक्टिव कार्बन सिंक की भूमिका निभाते हैं। ये दूसरे जंगलों की तुलना में चार गुना ज्यादा कार्बनडायऑक्साइड सोखते हैं। मैंग्रोव के पेड़ मरने के बाद भी पानी के नीचे की मिट्टी से ढके रहते हैं। इसकी वजह से इनके सड़ने पर कार्बन वायुमंडल में नहीं जाती। इस तरह ये कार्बन को स्टोर करने की बड़ी जिम्मेदारी निभाते हैं। मैंग्रोव जंगलों के पास रहने वाले समुदाय निर्माणकार्य से लेकर ईंधन तक के लिए इन पर निर्भर होते हैं। इनके प्लांट एक्सट्रैक्ट का इस्तेमाल दवाइयों के लिए और पत्तियां चारे के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। इनके पानी में मछलियों, केकड़ों और शेलफिश की भारी पैदाइश होती है जिससे मछुआरे समुदाय को रोजगार भी मिलता है लेकिन कुछ जगहों पर कमर्शल इस्तेमाल के लिए अंधाधुंध कटाई से sustainability पर खतरा पैदा होता है। बायोडायवर्सिटी हॉट-स्पॉट किसी भी संसाधन के इस्तेमाल के लिए sustainability की समझ बेहद जरूरी होती है। मैंग्रोव अपनी खूबसूरती और बायोडायवर्सिटी के लिए टूरिज्म का केंद्र बनते जा रहे हैं लेकिन यह जरूरी है कि इसके साथ ही इनके दुर्लभ और नाजुक जीवन को सम्मान दिया जाए। इंसानी गतिविधियों से यहां बायोडायवर्सिटी को खतरा होने लगा है। पूरी दुनिया में ये कई प्रजातियों का घर होते हैं। इन जंगलों में पक्षी रहते हैं, पलायन करके आते हैं और प्रजनन के लिए सुरक्षित ठिकाना भी बनाते हैं। यहां कई ऐसे बायोलॉजिकल मटीरियल और ऐंटीबैक्टीरियल कंपाउंड हैं जिनके बारे में अभी काफी रिसर्च भी की जानी है। इन दुर्लभ और अनोखी प्रजातियों के जीन्स को स्टडी करना भी अपने आप में एक बड़े रहस्य से पर्दा उठाना होगा लेकिन तटीय इलाकों में इन्हें नुकसान पहुंचने के साथ ही हम इस असीम संपदा से हाथ धोने का खतरा मोल ले रहे हैं। क्यों बना रहता है खतरा? सभी राज्यों में मेगा डिवेलपमेंट प्रॉजेक्ट्स को पर्यावरण असेस्मेंट के बाद ही क्लियर किया जाता है लेकिन कमजोर संस्थानों, नीतियों, प्रबंधन व्यवस्था, अनियमत मॉनिटरिंग की वजह से मैंग्रोव को खतरा होता है। ऐसे समुदाय जो मैंग्रोव पर निर्भर करते हैं उनकी गरीबी और असमानता की वजह से इन संसाधनों को खतरा हो रहा है। जिस दर से मैंग्रोव खत्म होते हैं दूसर जंगलों पर वैसा खतरा नहीं होता। अगर ऐसा ही रहा तो जैव विविधता और रोजगार दोनों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। आज दुनिया में मैंग्रोव पेड़ों की 6 में से एक प्रजाति विलुप्ति की आशंका में सांस ले रही है। तटीय विकास का सीधा नुकसान इन्हें भुगतना पड़ रहा है तो क्लाइमेट चेंज की मार से भी ये अछूते नहीं हैं। भारत में कहां हैं मैंग्रोव? रॉयल बंगाल टाइगर। यह नाम काफी होगा पश्चिम बंगाल के गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में बसे सुंदरबन मैंग्रोव जंगलों की पहचान के लिए। यह दुनिया में सबसे बड़ा मैंग्रोव जंगल का इलाका है। UNESCO की इस वर्ल्ड हेरिटेज साइट पर पेड़-पौधों की 180 प्रजातियां रहती हैं। यहां एक से बढ़कर एक अनोखे और दुर्लभ जीव पाए जाते हैं। गंगेटिक डॉल्फिन का घर सुंदरबन भारत में सबसे बड़ी रामसार साइट है। भारत में इस डेल्टा का दक्षिणपश्चिम हिस्सा 60% क्षेत्र आता है और 90% मैंग्रोव के पेड़। सिर्फ बंगाल ही नहीं, तमिलनाडु के पिचवरम जंगल, ओडिशा- तमिलनाडु के गोदावरी-कृष्णा डेल्टा के जंगल, तमिलनाडु की Point Calimere Wildlife and Bird Sanctuary, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की Pulicat Lake Bird Sanctuary, Bhitarkanika और अंडमान-निकोबार टापू के मैंग्रोव जंग दुर्लभ जलीय जीवों और पक्षियों का घर हैं। इलाका बढ़ा लेकिन हालात बेहतर? फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 के मुताबिक भारत में मैंग्रोव कवर 4975 स्क्वायर किलोमीटर में फैला है जो देश के टोटल ज्योग्राफिकल एरिया का 0.1 5 परसेंट है। इसमें से 29.66% बहुत ज्यादा घना, 29.73% कुछ घना और 40.61% कम घना जंगल है। कुल क्षेत्र 2017 की तुलना में साल 2019 में 54 स्क्वायर किलोमीटर बढ़ा है। देश में सबसे ज्यादा मैंग्रोव पेड़ों का इलाका पश्चिम बंगाल में 42.45%, गुजरात में 23.66% अंडमान और निकोबार में 12.39% है। साल 2017 की तुलना में 2019 में सबसे ज्यादा 37 स्क्वायर किलोमीटर मैंग्रोव कवर गुजरात में बढ़ा है। हालांकि, आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि बेहद घने जंगलों का क्षेत्र घटा है जिसे अच्छा संकेत नहीं माना जाता है भले ही कम घने जंगलों का क्षेत्र बढ़ा हो। इसलिए सिर्फ मैंग्रोव कवर बढ़ने से फिलहाल राहत की सांस नहीं ली जा सकती है। पूरी दुनिया जुटी है संरक्षण में दुनिया में कई जगहों पर मैंग्रोव के जंगलों के अंदर ईको फार्मिंग और ऐक्वाकल्चर की मदद से इनके हालात सुधारने की कोशिश की गई है। फरवरी, 1971 में ईरान के रामसार शहर में वेटलैंड संरक्षण के लिए समझौते पर दस्तखत किए गए और आज भारत में 42 रामसार साइट हैं। इनमें मैंग्रोव जंगल भी शामिल हैं। IUCN और UN sustainable development goal के तहत इनके मैनेजमेंट और रीस्टोरेशन को बढ़ावा दिया जाता है। भारत में भी इसके लिए कदम उठाए गए हैं। महाराष्ट्र में इसके लिए अलग से एक यूनिट तैयार की गई है और पाया गया है कि इनका क्षेत्र 43-64 स्क्वेयर किलोमीटर बढ़ा है। इनके सफल संरक्षण के लिए स्थानीय रणनीतियां सबसे जरूरी हैं। NASA की स्टडी में दिखा जमीनी सच अमेरिकी स्पेस एजेंसी NASA ने अमेरिका के जियॉलजिकल सर्वे लैंडसैट प्रोग्राम के साथ मिलकर जो हाई-रेजॉलूशन डेटा हासिल किया, उसके आधार पर रिसर्चर्स ने साल 2000 से 2016 के बीच ग्लोबल मैंग्रोव हैबिटेट में आए बदलावों को समझने की कोशिश की। साल 2010 में धरती की 53 हजार स्क्वेयर मील तटीय रेखाएं मैंग्रोव से घिरी थीं। इनमें से ज्यादातर दक्षिणपूर्व एशिया में थीं लेकिन पूरी दुनिया के ट्रॉपिकल और सबट्रॉपिकल लैटिट्यूड्स में ये जंगल मौजूद थे। हालांकि, कृषि, मत्स्यपालन, शहरीकरण जैसी वजगों से 50 साल में एक चौथाई से ज्यादा जंगल खत्म हो गए हैं। सबसे ज्यादा नुकसान दक्षिणपूर्व एशिया में ही हुआ है जहां इंडोनेशिया जैसे देशों ने श्रिंप और चावल की खेती के लिए जंगलों को काट दिया। अपने कदम संभाल रहा इंसानरिसर्चर्स की टीम ने पाया कि इस स्टडी पीरियड में 2% यानी 1300 स्क्वेयर मील मैंग्रोव जंगल खत्म हो गए थे। इसमें से 62% नुकसान इंसानी गतिविधियों के कारण हुआ और बाकी प्राकृतिक कारणों से। समय के साथ मैंग्रोव जंगलों के खत्म होने की दर धीमी होती गई और दिलचस्प बात यह रही कि इंसानी गतिविधियों के असर से होने वाले नुकसान की दर अब कम होने लगी थी। इसे अच्छा संकेत तो माना गया क्योंकि यह संरक्षण के लिए की जा रहीं कोशिशों की सफलता की ओर इशारा करता है लेकिन इस बात की आशंका भी पैदा करता है कि कई इलाकों, खासकर दक्षिणपूर्व एशिया में जंगल बचे ही नहीं, इसलिए बदलाव की दर कम दिखाई देती है। मैंग्रोव के खत्म होने से बड़ा खतरा ग्लोबल चेंज बायॉलजी में छपी एक रिसर्च के मुताबिक मैंग्रोव जंगलों के खत्म होने से सदी के आखिर तक उत्सर्जन 2391 टेराग्राम कार्बनडाइॉक्साइड equivalent पहुंच जाएगा। इसका सबसे बड़ा हिस्सा जिन इलाकों से निकलेगा उनमें सुंदरबन भी शामिल हैं। भविष्य में उत्सर्जन का 90% हिस्सा इन्हीं इलाकों से निकलेगा। मैंग्रोव जंगलों का नुकसान आंकड़ों में कम दिखता है और अगर हम सही दिशा में चलते रहे तो वैश्विक उत्सर्जन को आधा किया जा सकेगा। जो दूर हैं, वे भी जानें अहमियत लोगों को यह समझाना होगा कि मैंग्रोव की अहमियत क्यों है। ये सिर्फ स्थानीय लोगों या जनजातियों के लिए नहीं, सभी के लिए बहुत जरूरी हैं। ये दूसरे जंगलों की तुलना में कार्बन को चार गुना ज्यादा स्टोर कर सकते हैं। इसिलए ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ एक बड़ा हथियार हैं। पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों की तरह इसे लेकर जागरूकता फैलानी जरूरी है कि यहां कितने खास और दुर्लभ पेड़-पौधे हैं, जानवर हैं, पक्षी हैं जिनका संरक्षण मैंग्रोव पर निर्भर करता है। वे यहां प्रजनन के लिए आते हैं, पलायन करते हैं या रहते यहीं पर हैं। ऐसे पेड़ हैं जिनकी जड़ें नीचे की जगह ऊपर को आती हैं या दुर्लभ जानवर हैं जैसे वाइट टाइगर। इसी तरह यहां की बायोडायवर्सिटी में खास जीन्स होते हैं जो इतने दुर्लभ जीवों का आधार होते हैं। अभी इन्हें समझा जाना बाकी है। मैंग्रोव की दुनिया में कई ऐसी खोजें अभी की जा सकती हैं। इसलिए इनका संरक्षण हर किसी के लिए जरूरी है, सिर्फ उसके लिए नहीं जो उनके पास रहता है।
from World News in Hindi, दुनिया न्यूज़, International News Headlines in Hindi, दुनिया समाचार, दुनिया खबरें, विश्व समाचार | Navbharat Times https://ift.tt/3iMNGl7
via IFTTT
No comments:
Post a Comment