जोहानिसबर्ग नोबेल शांति पुरस्कार, भारत रत्न, निशान-ए-पाकिस्तान और गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित जवानी के दिनों में ही रंगभेद के खिलाफ काम में जुट गए थे। इसी वजह से उन्हें दक्षिण अफ्रीका का गांधी भी कहा जाता है। 18 जुलाई 1918 को जन्मे नेल्सन मंडेला का निधन 5 दिसंबर 2014 को हुआ। उनके जन्मदिन के मौके पर पेश है उन्हीं की आत्मकथा का एक हिस्सा... जोहानिसबर्ग में मैं शहरी बन गया था। मैंने स्मार्ट सूट पहने। मैं शानदार ओल्ड स्मोबाइल कार चलाता था और मुझे शहर की हर गली का रास्ता पता था। मैं रोजाना शहर के एक दफ्तर में भी जाता था। लेकिन असल में मैं दिल से देसी लड़का बना रहा और नीले आसमान, खुले मैदान और हरी घास के अलावा ऐसा कुछ भीनहीं था जो मेरी आत्मा को खुशी दे सके। सितंबर में,मुझ पर लगी पाबंदी हटाई गई तो मैंने अपनी आजादी का फायदा उठाने और राहत पाने का फैसला किया। मैंने तय किया कि ऑरेंज फ्री स्टेट की ओर जाऊंगा। जोहानिसबर्ग से ऑरेंज फ्री स्टेट के लिए ड्राइव करके जाने में कई घंटे लगते थे और मैं ऑरलैंडो से सुबह 3 बजे अपने सफर पर निकल पड़ा। घर से निकलने का यह वक्त मुझे शुरू से पसंद रहा है। मैं वैसे भी सवेरे जल्दी जाग जाता हूं। सुबह 3 बजे के वक्त सड़कें खाली और शांत होती हैं। तब कोई अपने साथ अकेला हो सकता है। मुझे दिन का उगना, रात और दिन के बीच का बदलाव देखना अच्छा लगता है। यह हमेशा रॉयल होता है। सफर के लिए निकलने का यह सबसे सुविधाजनक वक्त इसलिए भी होता था क्योंकि पुलिस आमतौर पर कहीं नहीं मिलती। ऑरेंज फ्री स्टेट ने हमेशा मुझ पर जादुई असर डाला है, हालांकि कुछ नस्लवादी श्वेत लोग बेशक उसे अपना घर कहें लेकिन जहां तक नजर जा सकती है वहां तक का सपाट धूल भरा दृश्य, ऊपर की बड़ी नीली छत, पीले-हरे रंग के खेत, झाड़ियां, सब मिलकर मेरे दिल को खुशकर देते हैं। चाहे मेरा मूड कैसा भी हो। जब मैं वहां होता हूं तो मुझे लगता है कि मुझे कोई बंद करके नहीं रख सकता क्योंकि मेरे विचार क्षितिज की तरह दूर-दूर तक फैल सकते हैं। इस परिदृश्य में बोअर कमांडर जनरल क्रिस्टियान डी वेट की याद आई। उन्होंने दर्जनों कामों में अंग्रेजों को पछाड़ दिया था। एंग्लो-बोअर जंग के अंतिम महीनों के दौरान वह निडर और चतुर मेरा हीरो हो सकता था। अगर वह अफ्रीकानेर (अफ्रीका में रहनेवाले डच वशंज) ही नहीं, सभी दक्षिण अफ्रीकियों के अधिकारों के लिए लड़ते तो यकीनन मेरे हीरो होते। उन्होंने दलितों के साहस और साधन संपन्नता और शक्ति का प्रदर्शन किया। जैसे ही मैंने गाड़ी चलानी शुरू की, मैंने जनरल डी. वेट की सेना के छिपने की जगहों की कल्पना की और सोचा कि क्या वे किसी दिन अफ्रीकी विद्रोहियों को भी शरण देंगे। इस जगह आकर मुझे खुशी मिल रही थी। लेकिन मेरी सुरक्षा की भावना झूठी साबित हुई। जब मैंने 3 सितंबर को छोटे से कोर्ट हाउस में एंट्री की तो वहां कुछ पुलिसवालों को अपना इंतजार करते हुए पाया। उन्होंने मुझे एक ऑर्डर दिखाया जिसमें लिखा था कि साम्यवाद के दमन अधिनियम के तहत मुझे अफ्रीकी नैशनल कांग्रेस (एएनसी) से इस्तीफा देना होगा। मुझे जोहानिसबर्ग जिले तक सीमित रहना होगा और दो साल तक किसी भी मीटिंग या सभा में हिस्सा नहीं लेना। मुझे अंदाजा था कि ऐसा हो सकता है लेकिन मुझे दूर-दराज के इस इलाके में ऐसा ऑर्डर मिलने की उम्मीद नहीं थी। मैं 35 साल का था और इन नई व ज्यादा गंभीर पाबंदियों ने एएनसी के साथ करीब एक दशक का मेरा साथ खत्म कर दिया। यह मेरे राजनीतिक जागरण और विकास का समय था। संघर्ष के लिए मेरी प्रतिबद्धता थी, जो मेरा जीवन बन गया था। अब एएनसी और मुक्ति संघर्ष के लिए की जाने वाली कार्रवाई और योजनाएं सीक्रेट और गैरकानूनी हो जाएंगी। मुझे तुरंत जोहानिसबर्ग लौटना पड़ा। इन पाबंदियों ने मुझे संघर्ष के केंद्र से किनारे कर दिया। मैं सब कुछ उसके इर्दगिर्द ही करता था। हालांकि मैं अक्सर ऐसी घटनाओं की दिशा प्रभावित करने में कामयाब होता था। लेकिन मैं अब खुद को उस शरीर का महत्वपूर्ण अंग जैसे दिल, फेफड़े, या रीढ़ की हड्डी नहीं महसूस कर पा रहा था, बल्कि एक कटा हुआ अंग जैसा महसूस कर रहा था। आजादी के सिपाहियों को नियमों का पालन करना पड़ता है, लेकिन कानून का या कारावास का उल्लंघन करना एएनसी और मेरे लिए उस वक्त बेकार होता। क्रांतिकारी सिस्टम से खुले तौर पर लड़ रहे थे, चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों न देनी पड़े। जेल जाने से बेहतर है कि अंडरग्राउंड संगठित हो जाएं। जब मुझे एएनसी से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया तो संगठन को मेरी जगह किसी को रखना था, चाहे वह मुझे पसंद न हो। मेरे पास कोई अधिकार नहीं था। जब मैं जोहानिसबर्ग वापस जा रहा था तो फ्री स्टेट के वही सीन दिखे पर अब सब कुछ बेकार था। जब मुझ पर लगी पाबंदी खत्म हुई तो उसके अगले महीने एएनसी का ट्रांसवाल सम्मेलन होने वाला था। मैंने अपना अध्यक्षीय भाषण पहले ही लिखकर रख लिया था। इसे कार्यकारिणी के एक सदस्य एंड्रयू कुनेने ने सम्मेलन में पढ़ा। वह भाषण बाद में जवाहरलाल नेहरू से ली गई एक लाइन 'द नो इज़ी वॉक टु फ्रीडम' स्पीच के रूप में मशहूर हो गया। मैंने कहा कि जनता को अब नई राजनीतिक लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा। सरकार के नए कानूनों और तरकीबों ने जन-विरोध के पुराने रूपों को जैसे जनसभा, प्रेस में बयान आदि को खतरनाक बना दिया। साम्यवादी दमन अधिनियम के तहत अखबार हमारे बयान नहीं छाप रहे थे, प्रिंटिंग प्रेस ने मना कर दिया। यह सब देखते हुए मैंने लिखा कि अब राजनीतिक संघर्ष के नए विकास की जरूरत है। पुराने तरीके आत्मघाती हैं।' 'दमन करनेवाले और पीड़ित आमने-सामने हैं। मुझे जरा भी संदेह नहीं है कि वहदिन आएगा जब सच और न्याय की जीत होगी।' पढ़ाई व्यक्तिगत विकास का इंजन है। पढ़ाई से ही किसान की बेटी डॉक्टर बन सकती है, किसी खान मजदूर का बेटा उसी खान का हेड बन सकता है। खेत में मजदूरी करने वाले का बच्चा महान देश का राष्ट्रपति बन सकता है, जो कुछ हमें मिला उससे हम क्या हासिल कर सकते हैं, यह देखें। यह नहीं कि हमें क्या दिया गया। यही बात एक शख्स को दूसरे से अलग करती है। सदी की शुरुआत के बाद से अफ्रीकियों को पढ़ने के लिए विदेशी चर्च और मिशन की ओर से मौके मिले जिन्होंने स्कूलों को स्पॉन्सर किया। यूनाइटेड पार्टी के समय, अफ्रीकी सेकंडरी स्कूलों और श्वेत सेकेंडरी स्कूलों का सिलेबस अनिवार्य रूप से एक जैसा ही रखा गया था। मिशन स्कूलों ने अफ्रीकियों को वेस्टर्न स्टाइल की अंग्रेजी भाषा की एजुकेशन दी। मैंने भी वही पढ़ाई की। हमें कम सुविधाएं मिली थीं लेकिन हम जो पढ़ या सोच सकते थे या सपने देख सकते थे, उसमें कोई कमी नहीं थी। फिर भी, राष्ट्रवादियों के सत्ता में आने से पहले, फंडिंग में गैर बराबरी नस्लवादी शिक्षा की ओर इशारा करती है। सरकार ने अफ्रीकी छात्र की तुलना में हरेक श्वेत छात्र पर 6 गुना ज्यादा खर्च किया। अफ्रीकियों के लिए पढ़ाई जरूरी नहीं थी। सिर्फ प्राइमरी क्लास तक की पढ़ाई मुफ्त थी। अफ्रीकी बच्चों में से आधे से कम ने ही स्कूल देखा था। केवल कुछ ही अफ्रीकियों ने हाई स्कूल तक की पढ़ाई की। इतनी पढ़ाई भी राष्ट्रवादियों के लिए बेकार साबित हुई। अफ्रीकानेर हमेशा से अफ्रीकियों की एजुकेशन के लिए उदासीन रहे हैं। वे मानते थे कि यह वक्त की बर्बादी है क्योंकि अफ्रीकी मूर्ख और आलसी रहे हैं और कोई भी पढ़ाई उन्हें सुधार नहीं सकती। अफ्रीकानेर नहीं चाहते थे कि अफ्रीकी अंग्रेजी सीखें, उनके लिए यह सिर्फ एक विदेशी भाषा थी जबकि हमारे लिए मुक्ति की भाषा। साल 1953 में, राष्ट्रवादी-प्रभुत्ववाली संसद ने बंटू शिक्षा ऐक्ट पारित किया, जिसने अफ्रीकी शिक्षा पर रंगभेद की मुहर लगाने की मांग की। ऐक्ट के तहत, अफ़्रीकी चर्च और मिशन द्वारा चलाए जा रहे प्राइमरी और मिडिल स्कूलों को सरकार को सौंपने के लिए कहा गया। ( 'द लॉन्ग वॉक टु फ्रीडम' के भाग-4 द स्ट्रगल ऑफ माइ लाइफ का एक अंश)
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