
काबुल आज से 3000 हजार साल से भी ज्यादा समय से पहले सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान जो जमीन कभी हिंदुओं और फिर बाद में सिखों का घर थी, वहां आज 99.7 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम रहते हैं और एक कट्टरपंथी आतंकी समूह का राज है। बात अफगानिस्तान की हो रही है जिसकी सत्ता पर काबिज तालिबान के निशाने पर शुरुआत से ही हिंदू और सिख जैसे अल्पसंख्यक रहे हैं। यही कारण है कि यहां से अल्पसंख्यकों की आबादी लगातार सिकुड़ती जा रही है। हिंदू-सिख के प्राचीन पवित्र स्थलअफगानिस्तान में अक्सर हिंदुओं और सिखों को एक ही समुदाय का समझा जाता है क्योंकि दोनों धर्म कई समानताएं साझा करते हैं। अफगानिस्तान में दोनों धर्मों के कई पवित्र स्थल हैं जो बेहद प्राचीन हैं। जैसे जलालाबाद में स्थित Chisma साहिब गुरुद्वारा जिसे लेकर सिखों की मान्यता है कि 15वीं शताब्दी में सिख धर्म के संस्थापक गुरू नानक यहां आए थे। इसी तरह काबुल का Asamai मंदिर हिंदू देवी 'आशा' के नाम की पहाड़ी पर स्थित है। शुरू हुए हिंदुओं के 'काले दिन'सोवियत-अफगान युद्ध के समय बड़ी संख्या में हिंदू और सिख यूरोप और भारत पलायन कर गए। देश पर मुजाहिदीनों का कब्जा हो गया। 1994 में तालिबान के गठन के बाद हिंदुओं के 'काले दिन' शुरू हो गए। उन्हें प्रताड़ित किया जाता, मारा-पीटा जाता, उनकी संपत्तियों को जब्त कर लिया जाता और अपनी आस्था का प्रदर्शन करने पर उन्हें मारा-पीटा जाता। धीरे-धीरे हिंदुओं और सिखों के अपहरण और हत्याओं के मामले अफगानिस्तान में बेकाबू हो गए। पहचान को लेकर जूझ रहे हिंदूतालिबान ने पहचान के लिए हिंदुओं और सिखों को पीले रंग की पट्टी पहनने को मजबूर किया। यह नाजी जर्मनी में यहूदियों के पीले सितारा की तरह ही था। अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों में यह उत्पीड़न अभी तक जारी रहा। इसीलिए सत्ता में तालिबान की वापसी होते ही हिंदुओं और सिखों ने देश छोड़ने का फैसला लिया, जिनमें से ज्यादातर भारत आ चुके हैं। यह तालिबान का खौफ ही था जिसने उन्हें अपना घर, अपनी जमीन, अपने मंदिर, अपनी आस्था और यादों को छोड़ने के लिए मजबूर किया। भारत आने के बाद शरणार्थीय के रूप में नया जीवन शुरू करने जा रहे कई हिंदू अपनी पहचान को लेकर असमंजस की स्थिति में भी हैं। वे खुद को 'अफगान' कहें या 'हिंदू' इसे लेकर फिलहाल कई शरणार्थी संघर्ष कर रहे हैं। अफगानिस्तान में बचे सिर्फ 50 हिंदूरिपोर्ट्स बताती हैं कि 70 के दशक में और सिखों की आबादी 700,000 थी। टोलो न्यूज की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में यह आबादी सिर्फ 1350 तक सिकुड़ गई। वहीं इंटरनेट पर उपलब्ध आंकड़े के मुताबिक 2020 में अफगानिस्तान में सिर्फ 50 हिंदू और 700 सिख बचे। प्राचीनकाल में अफगानिस्तान मंदिर और गुरुद्वारों के लिए एक सुरक्षित स्थान हुआ करता था। कट्टरपंथियों के शासन के बाद एक तरह जहां लोगों में सार्वजनिक रूप से इन स्थलों के भीतर जाने से खौफ बढ़ा तो वहीं कई पवित्र स्थल निवास स्थानों में बदल गए। कई रिपोर्ट तो यहां तक दावा करती हैं कि अफगानिस्तान में अब सिर्फ दो-चार गुरुद्वारे और सिर्फ एक मंदिर ही बचा है।
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